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कविता

किसी क्रांति में नहीं शांति

प्रतिभा कटियार


कविता में नहीं छाँव फिर भी
किसी क्रांति में नहीं इतनी शांति
कि समा ले अपने सीने में
जमाने भर का अवसाद
मिटा दे शोषण की लंबी दास्तानों के
अंतिम नामोनिशाँ तक
किसी युद्ध में नहीं इतना वैभव
कि जीत के जश्न से
धो सके लहू के निशान
बच्चों, विधवाओं और बूढ़े माँ-बाप
की आँखों में बो सके उम्मीदें
किसी आंदोलन में
नहीं इतनी ताकत जो बदल दे
लोगों के जीने का ढंग
और सचमुच
वे छोड़ ही दें आरामपरस्ती
किसी गांधी, किसी बुद्ध के पास
नहीं कोई दर्शन
जो टकरा सके जीडीपी ग्रोथ से
और कर सके सामना
सरकारी तिलिस्म का
किसी शायरी में नहीं इतना कौल
कि सुनकर कोई शेर
सचमुच भूल ही जाए
बच्चे पेट की भूख
और नौजवान रोजगार की चाह
किसी अखबार में नहीं खबर
जो कॉलम की बंदरबाट और
डिस्प्ले की लड़ाई से आगे
भी रच सके अपना वितान
किसी प्रेम में नहीं इतनी ताब
कि दिल धड़कने से पहले
सुन सके महबूब के दिल की सदा
और उसके सीने में फूँक सके अहसास
कि मैं हूँ...
किसी पीपल, किसी बरगद के नीचे
नहीं है कोई ज्ञान
कि उसका रिश्ता तो बस
भूख और रोटी का सा है
किसी कविता में नहीं इतनी छाँव
कि सदियों से जलते जिस्मों
और छलनी पाँवों पर
रख सके ठंडे फाहे
गला दे सारे गम...
जानते हुए ऐसी बहुत सी बातें
खारिज करती हूँ अपना पिछला जाना-बूझा सब
और टिकाती हूँ उम्मीद के कांधों पर
अपनी उनींदी आँखें...
 


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